Tuesday 19 September 2017

कहानी वाला गांव आज बिना खोजे ही मिल गया


पर्युषण पर्व जैन लोगोंका सबसे महत्वपूर्ण पर्व कहलाता है. ये आत्माकी शुद्धि का पर्व है.  इन दिनों में सिर्फ मानव ही नहीं प्रकृति  भी बहोत खुश होकर झूमने लगती है . हम शहरी लोगों के लिए ये पर्व तो कुछ खास मायने रखता है. हम अपने भोगविलास में इतने रचपच गए है की ये पर्युषण पर्व, एक मौका है हमारे असली रूप को पहचानने का, अपनी आत्मा की और देखने का. इसीलिए हम प्रयास करते है के पर्युषण, निर्ग्रन्थ गुरुओं के सान्निध्य में हो और वह भी ऐसे गुरु जो पंचमकाल में भी चतुर्थकाल जैसी चर्या और साधना में लीन हो - परम पूज्य १०८ श्री विनीत सागरजी एवं परम पूज्य १०८ श्री चन्द्रप्रभ सागरजी।

इस बार के चौमासे में वे मुनिराज राजस्थान प्रांत के बोराव नामक एक छोटेसे गांव में विराजमान हैं. हमारा तय था के महाराजजी जहाँ होंगे वहा जाना है, यहाँ पुणे से हर चौमासे में करीब १५-२० लोग चौका लेकर जाते हैं, उनके साथ हम भी निकल पड़े. अनजान इस बात से के एक ऐसा अनुभव साथ लाएंगे जिसे शायद जिंदगी भर भुला नहीं पाएंगे.

बहुत बार ये सोचते थे की आदर्श जीवन कैसा होना चाहिए ,"एक गांव है जहा सब लोक मिलजुल के रहते है , गांव में एक नदी है आजुबाजु खेत है ,खेत का पका हुआ अनाज घर में आता है जो की रसायनो से परे है, घर में भी  बड़ो का आदर होता है, सुबह शाम भगवान की भक्ति होती है, जहा अपनी धर्म और संस्कृति बहुत नजदीक से देखने को मिलती है " ये सब अब तक कहानी में सुना था. लेकिन अपने कानों पर और अपने आखों पर विश्वास न बैठे ऐसी जगह का पता वर्तमान में पता चला है उस गांव का नाम है "बोराव". 

गूगल मैप पे ढूंढोगे तो दीखेगा नहीं, क्यूंकि शायद देवों के द्वारा बसाया गया हो ऐसा लगे और शायद शहर वाले लोग यहाँ जाके गन्दगी न फैलाये इसीलिए दीखता नहीं हो. हम भी ऐसा ही सोच के  गए थे पता नहीं कहा जा रहे है ? इतना छोटा गांव पर्युषण की व्यवस्था होगी भी की नहीं ?  इतना बस पता था की परमपूज्य श्री १०८ विनित सागर जी और परमपूज्य श्री १०८ चन्द्रप्रभु सागर जी महाराजी का सानिध्य मिल जाये तो पर्युषण सफल हो जाये. लेकिन मन में थोडीसी आशंका थी. हमारा कुछ ऐसा हुआ पुणे से नागदा जंकशन सुबह ६:०० बजे पहुंचे और वहां से कोटा करीब ११ बजे पहुँच गए. कोटा में एक करीबी रिश्तेदार के यहाँ नाह धोके, भोजन किया और  दोपहर २ बजे गाड़ी मिलेगी ऐसा सोच कर धुप में २ घंटे इंतजार करते रहे लेकिन गाड़ी तो दूर कोई साधन नहीं मिला. रावतभाटा होके सिंघौली की गाड़ी पकड़ली और २ गाड़िया बदलते हुए बोराव पहुंच गये. हम शहरी लोगों को सब इंस्टेंट मिलता है इसीलिए संयम जल्दी छूटता है. और शाम को ६ बजे बोराव पहुंच गए. कहा आके पड़ गए ये सोच बनी हुई थी. लेकिन ये असली जन्नत है ये बादमे पता चला. लेनेके लिए लोग पहले ही पहुंच चुके थे. शाम की भोजन की व्यवस्था बन चुकी थी. महाराज जी के दर्शन के बाद मन थोड़ा हल्का हुआ. हमारा सामान दो बुज़ुर्ग लोगों ने (कोई कर्मचारी नहीं बल्कि श्रावक थे वहां के ) उठा के सही जगह पंहुचा दिया और हमें पता भी नहीं चलने दिया. मेरी चप्पल भी जब उठा के पंहुचा दियी तब हम शहरी लोगों का मान मिट्टीमे मिल गया. आज तक यही समझा था हम जैसी व्यवस्था छोटे गांव वाले नहीं कर सकते है पर ये तो शुरूवात थी. 

हम करीब १६ लोग पुणे से चौका लेके गए थे. और इतने लोगोंकी व्यवस्था कोई अपने घर पे एक नहीं दो नहीं पुरे दस दिन कर रहा है और वो भी कोई हिचकिचाहट न रखते हुए ! हम लोग दस बार सोचेंगे?? कही अपना घर ख़राब न कर दे !! बहुत छोटी मानसिकता है बड़े बड़े शहरवालों की !!!


ऊपर के नए दो कमरे हमारे रहने के लिए और बड़ा हॉल चौका के लिए दिया था . बर्तन तो उनके खुद के घरके थे . जितने बड़े बड़े थे सब हम लोगों केँ लिए दे दिए, बिना गिने ही. अपने परिवार वालों को गिनके बर्तन देने वाले हम उनके लिए तो अनजान लोग ही थे. हमने जो द्रव्य (गेहूं, दाल, इत्यादि ) लाया था वो वैसा के वैसा रखना पड़ा, खेत के गेहू, सब्जी, फल सबकी तैयारी कर के दी थी. यहाँ तक की दूध  भी अपनेही घर का और खुद घर की महिलाओं ने निकला हुआ. यहाँ की महिलाये, पुरुष, बेटियां और बहुएँ घर का सारा काम (झाड़ू पोंछा, बर्तन मांझना, बोझा ढोना) खुद ही करते है. इन कामों के लिए इनके यहाँ कोई सेवक नहीं आते. जिससे इनका स्वावलम्बन अभीभी टिका हुआ है.  


"अतिथि देवो  भव " क्या और कैसे होता है ये  वहां जाकर पता चला. अपनी संस्कृति और धर्म को इन लोगोने बड़ी अच्छी तरह बचाके रखा है. महिलाओ की मर्यादा और पुरुषोंकी सादगी को यहाँ जतन करके रखा है. इस गांव की एक और ख़ासियत ये है की, इस भौतिकतावादी युग में भी यहाँ की बेटियों के पास अपना खुद का मोबाइल नहीं है. उन्हें जबभी कोई जरुरत होती है तो अपने पिता या भैया का मोबाइल इस्तेमाल करती हैं और तुरंत लौटा देती है. छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी लोग अभिषेक, पूजा एवम स्वाध्याय में दिखाई देते है. मंदिरजी में सुबह की संगीतमयी पूजन के लिए, या संध्या की भक्ति के लिए किसी बाहर के संगीतकार की कोई आवश्यकता ही नहीं. यहाँ कोई भाई गाता है तो कोई ढ़ोल बजाता है और कोई अपनी उँगलियों का जादू पियानो पर चलता है. महाराजजी के आहार के बाद ढ़ोल, ताशे और बाजे की जयजयकार में महाराजजी का मंदिरजी तक विहार कराने वाले भी छोटे छोटे श्रावक। ऐसा लगता था के जैसे चतुर्थ काल के मुनियों को चतुर्थ काल का ही भारत और चतुर्थ काल के ही श्रावक मिल गए हो चौमासा के लिए. केवल ३०-३५  जैन घर होते हुए भी सभी इतनी उत्तम व्यवस्था यहाँ देखि गयी.

महाराजजी के आहार होने के बाद जब हम अपने चौकें में जाने लगते तोह कोई न कोई आकर हम में से कुछ लोगों को अपने चौके में भोजन के लिये आग्रह कर के ले जाता और खाने खिलाने के मामले में तो वैसेभी राजस्थान बहोत प्रसिद्ध है. 

शहर से दूर होके भी किसीभी चीज़ की कमी महसूस होने नही दी. और जीवनभर के लिए एक पाठ हम शहरवासियो के लिए पढ़ा दीया. 



 कहानी वाला गांव  आज बिना खोजे ही मिल गया, 
चतुर्थ कालीन चर्या कैसी होगी इसका पता लग गया,
गांव में सुन्दर बह रही है ब्राम्ही लेके अपना पानी,
गांव का बच्चा बच्चा जाने जिनवाणी,
सब काम खुदसे करते है न सेवक लगे न नौकरानी,
अनाज उगायें खेतों में, और गाय के दूध की गंगा नहायी,
औरते चलती है सिर ढकके और पुरुष रखे पोशाख में सादगी,
आज भी सब साथ साथ चल रहे है लेके अपना धर्म और संस्कृति,
हम शहरवालों को अब तक नाज़ था लेके अपनी दुनियादारी,
आधुनिकता से भरा जीवन और ढेर सारी पैसोंकी कमाई,
बोराव जाके पता चला क्या है सच्ची जिंदगानी,
न पैसा साथ आएगा न ये सुखोंकी चटाई,
साथ लेके जाओगे वो है धर्म ने दी हुई सिखाई,


सब नाज़ वही के वही उतर गया ....
कहानी वाला गांव  आज बिना खोजे ही मिल गया 

Wednesday 13 September 2017

अनुभवातून गिरवलेला धडा

आज सक्षमला  घेऊन एका होम स्कूल co -opp ला गेले होते. साधारण ३ ते १० या वयोगटाची मुले आणि त्यांचे पालक तिथे जमले होते . एका कॉफी जार कॅफे मध्ये आम्ही भेटलो . कॅफे चालवणारी लिसा ही सुद्धा एक होम स्कूलर मुलांची आई आहे . त्यामुळे तीची जागा आम्ही महिन्यातून एकदा भेटण्यासाठी वापरतो . जे शिक्षण शाळेत मिळूच शकत नाही अस exposure मुलांना मिळतं . कुणाचा धाक नाही, वेळेचं बंधन नाही,अभ्यासाचे ओझे नाही ,कुणासोबत स्पर्धा नाही मार्कांचा आकडा  नाही  . स्वछंद सोडल्या नंतर मुलांमध्ये किती talent आहे हे लक्षात येत . एका टेबलवर भरपूर कलर्स अक्षरशः सांडलेले होते सगळ्यांना एक एक कोरा कागद देण्यात आला . पाहिजे ते साहित्य उचला आणि आपली कला दाखवण्यास त्यांना पुरेसा वेळ देण्यात आला. अप्रतिम चित्र मुलांनी आपापल्या क्षमतेनुसार रेखाटली. असच करायला पाहिजे हे सांगणार त्यांना कोणी नव्हतं . साच्यातली चित्र त्यांनी काढली नाही . त्यामुळे एकही चित्रात गवत खाणारी गाय किंवा दोरी खेळणारी मुलगी दिसली नाही. दिसले ते ३d अँगल ने मुलांनी कल्पना केलेले चित्र . त्याची तुलना होऊच शकत नाही . हाताची बोटे वापरून सुंदर निसर्ग चित्र रेखाटल्या गेले . यावरून एकच लक्षात आले मुलांना जर मदत करायची असेल तर एवढंच करा कि "त्यांना कुठलीच मदत करू नका " . हे घोड्याचं चित्र आहे हे त्यांच्या मानस पटलावर बिंबित करण्यापेक्षा , जेव्हा खरंच घोडा त्याच्या डोळ्यसमोर येईल तेव्हा त्याला आलेली अनुभूती ही  कायम त्याच्या स्मरणात राहील . हे ज्ञान कायमस्वरूपी असत. 

असच खेळण्याच्या बाबतीत सुद्धा आढळत . आधी मी १० दिवसातून एकदा खेळण्याच्या दुकानाला भेट द्यायचे आणि विशेष वेगळे वाटणारे खेळणे हे मी सक्षम साठी निवडायचे . उच्च किमतीचे ,ब्रॅण्डेड खेळणे निवडण्यामागे माझा कल होता . पण काही दिवसात तो त्या खेळण्यांना कंटाळून जातो .  हळूहळू लक्षात आले आपण त्याला हातात खेळणे देऊन त्याच्या creativity वर बंधन घालतोय .  म्हणून एक नवीन प्रयोग सुरु केला घरात जे खोके ,प्लास्टिकचे बॉक्सेस ,चमचे , टाकाऊ सामान आहे आम्ही त्यातून वेगवेगळे निर्मिती करू लागलो . आणि कुणाचा विश्वास बसणार नाही अशा युक्त्या मला त्याच्याकडून ऐकायला मिळतात . रस्त्यावरचा ट्रॅफिक जॅम हा कसा डायव्हर्ट होतो हे त्याने मला प्रयोग करून दाखवले . तेव्हापासून शॉपिंग मॉल मध्ये जाऊन माझे ब्रँडेड खेळणे आणणे बंद झाले. मुलांची निसर्गाशी फार लवकर मैत्री होते . पण आजकालच्या शहरी वातावरणात आपण मुलांना कृत्रिम जगाशी ओळख करून घेण्यास भाग पाडतो .माझ्या मुलाला  सामाजिक जाणीव असली पाहिजे हि पालकांची अपेक्षा फोल ठरते .झाड ,नदी,डोंगर , जंगल ,प्राणी ह्यांच्याशी मुलांची लवकर मैत्री होते . कारण त्यांना ते आपल्यापेक्षा वेगळे वाटतात . नैसार्गिग घडणाऱ्या गोष्टींकडे मुलांचं आकर्षण असत. आपण मात्र readymade knowledge मुलांना देतो .
म्हणून मला एक नवीन पैलू जाणवतोय . पुस्तकी ज्ञान तर मी खूप मिळवलं ,पण सक्षमसोबत परत एकदा अ आ इ पासून शिकावयास वाटतंय .   

भावनांची जागा प्रोग्रामिंग घेतं तेव्हा ...

    भावनांची जागा प्रोग्रामिंग घेतं तेव्हा ...  AI (artificial intelligence -कृत्रिम बुद्धिमत्ता ) हल्ली चॅट जिपीटी ची इतकी सवय झाली आहे ना ...